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जिंदगी अब बोझ क्यों बनने लगी है
याद उन की क्यों मुझे छलने लगी है I
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रातरानी सी महक खिलने लगी है
वो निकल कर इस तरफ बढने लगी है I
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भूल जाऊं काश मैं उन को खुशी से
याद दिल में तीर सी चुभने लगी है I
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क्या करें सारे भरोसे मिट रहे तो
धांदली यारो हमें छलने लगी हैI
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दे रहे है स्वप्न अच्छे दिन मिलेंगे
उन बढे दामों से' जाँ डरने लगी है I
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बात खाने या खिलाने की नहीं अब
रोक खाने पे भला लगने लगी है I
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तोडकर वो दिल हमारा जा रही यूं
रुह मानो जिस्म से उडने लगी है I
- प्रकाश पटवर्धन, पुणे.
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